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पुष्यमित्र शुंग – वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के जनक “ शुंग राजवंश “ Pushyamitra Sunga (Sunga Dynasty)

Tuesday 14 August 2012

सम्राट पुष्यमित्र शुंग

पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ के प्रधान सेनापति थे | मगध सम्राट व्रहद्रथ मौर्य की हत्या कर, पुष्यमित्र मगध सम्राट बने और शुंग राजवंश की स्थापना की | शुंग राजवंश के संस्थापक का जन्म ब्राह्मण, शिक्षक परिवार में हुआ था | इनके गोत्र के सम्बन्ध में थोडा मतभेद है, पतांजलि के मुताबिक भारद्वाज गोत्र और कालिदास द्वारा रचित “ मालविकाग्निमित्रम “ के अनुसार कश्यप गोत्र कहा जाता है | वैसे एक बात यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगा की ब्राह्मण कुल में जन्मे सम्राट पुष्यमित्र शुंग कर्म से क्षत्रिय ब्राह्मण रहे, जो यह सिद्ध करता है की वह एक अयाचक ब्राह्मण थे | “ साहसी मोहयालों का इतिहास “ नामक पुस्तक के लेखक पी. एन बाली ने पुष्यमित्र शुंग को अपने कथित पुस्तक में भूमिहार दर्शाया है | शुंग राजवंश की स्थापना पर विस्तारपूर्वक पढ़ें -

मगध साम्राज्य के नन्द वंशीय सम्राट धनानन्द के साथ नन्द वंश का सूर्याष्त तथा मगध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के साथ मौर्य साम्राज्य के उदय का श्रेय ब्राह्मण “ चाणक्य ” को जाता है | आचार्य चाणक्य ने अपने जीवित रहने तक विश्व की प्राचीनतम हिंदू धर्म की वैदिक पद्ति को निभाते हुए मगध की धरती को बौद्ध धर्म के प्रभाव से बचा कर रखा | किन्तु सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म को अपना कर लगभग २० वर्षों तक एक बौद्ध सम्राट के रूप में मगध पर शासन किया | अशोक ने अपने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया इसका प्रभाव मौर्य वंश के नौवें व अंतिम मगध सम्राट वृहद्रथ तक रहा |

जैसा की देखने को मिलता है, सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन काल में मगध साम्राज्य की सीमा उत्तरी भारत तक ही थी | चंद्रगुप्त मौर्य अपने अंतिम दिनों में जैन धर्म को अपनाकर, राजपाट अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंपकर तीर्थ के लिए रवाना हो गए थे | बिन्दुसार ने दक्षिण भारत के ऊचांई वाले क्षेत्रों पर विजय प्राप्त किया | २७३ ई.पू. में बिन्दुसार पुत्र सम्राट अशोक जब गद्दी पर बैठे तो उन्होंने अपने शासन का विस्तार करते हुए आज के समूचे भारत, केवल सुदूर दक्षिण के कुछ भूभाग को छोड़कर, नेपाल की घाटी, बलूचिस्ताजन और अफगानिस्तान तक मगध साम्राज्य का आधिपत्य कायम किया | परन्तु मगध सम्राट अशोक के द्वारा बौद्ध धर्मं अपनाने की वजह से, उससे लेकर अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ तक बौद्ध धर्म के अत्यधिक प्रचार एवं अहिंसा के प्रसार की वजह से वृहद्रथ के गद्दी पर बैठने तक मगध साम्राज्य सिमट कर रह गई | व्रहद्रथ का शासन आज का उत्तर भारत, पंजाब व अफगानिस्तान तक सिमित रह गया | उसके शासन काल में मगध सामराज्य पूरा बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो चुका था, आर्यावर्त की पावन धरती पर बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का केंद्र बन चूका था |

जहाँ सम्राट चंद्रगुप्त के शासन काल में ग्रीक शासक सिकंदर महान व उसका सेनापति सैल्युकस जैसे वीरों का भारत विजय का मंसूबा पूरा नहीं हो सका था, और अपना ह्रास करा वापस जा चुके थे, वहीं वृहद्रथ के शासन काल में यूनानियों (ग्रीक) ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखाया | ग्रीक शासक मिनिंदर जिसे बौद्ध ग्रन्थ में मिलिंद कहा गया है, ने वृहद्रथ मौर्य की अहिंसात्मक नीति को ध्यान में रखकर भारत विजय का सपना देखकर आक्रमण की योजना बनाई | मिनिंदर न बौद्ध धर्म गुरूओं को झाँसा देकर भारत में अपने यवन (यूनानी) सेना सहित प्रवेश किया | बौद्ध भिक्षु का वेश धरकर, मगध की सीमा से लगे बौद्ध मठों में अपने यवन सेना और हथियार सहित चोरी छुपे शरण ली | इसके भारत पर आक्रमण के मनसूबे में कई राष्ट्र द्रोही बौद्ध गुरूवों ने इसका साथ दिया था | यवन मिनिंदर ने भारत विजय के पश्चात् बौद्ध धर्म अपनाने की इक्छा इन राष्ट्र द्रोही बौद्ध धर्म गुरुवों के समक्ष रखी थी | राष्ट्र द्रोही बौद्ध धर्म गुरूवों के द्वारा एक विदेशी यूनान शासक एवं उसके सैनिको का बौद्ध मठों में आगमन से बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह का केंद्र बन चूका था | मगध साम्राज्य के देशभक्त सेनापति पुष्यमित्र शुंग को इस बात की भनक लग चुकी थी | पुष्यमित्र ने सम्राट वृहद्रथ से विदेशी यवनों के मठों में छिपे होने की बात का जिक्र कर मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी, जिसे बौद्ध धर्मी वृहद्रथ ने मना कर दिया | राष्ट्र भक्त पुष्यमित्र ने मगध की रक्षा को अपना राष्ट्र धर्म समझकर सम्राट वृहदरथ की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए मठों की तलाशी लेना शुरू कर दिया | मठों में बौद्ध वेश में छिपे सभी विदेशी यूनानी सैनिकों को पकड़ कर सेनापति पुष्यमित्र के आदेश से उनका कत्लेआम कर दिया गया | किन्तु ग्रीक शासक मिनिंदर किसी तरह वहाँ से बच निकला | इसके साथ सभी राष्ट द्रोही बौद्ध धर्म गुरुओं को भी कैद कर लिया गया | सम्राट वृहद्रथ अपने आदेश के उल्लंघन के साथ पूरे घटना क्रम को लेकर सेनापति पुष्यमित्र से नाराज था | यवनों और देशद्रोही बौद्धों को सजा देकर पुष्यमित्र जब मगध में प्रवेश हुए तो उस वक्त सम्राट वृहद्रथ सैनिक परेड की जाँच में लगा था | सम्राट और पुष्यमित्र शुंग के बीच परेड जाँच के वक़्त पूरे घटना चक्र, बौद्ध मठों को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया | सम्राट वृहद्रथ मौर्य ने अपने सेनापति पुष्यमित्र शुंग पर धोखे से हमला करना चाहा, परन्तु पुष्यमित्र ने सतर्कता बरते हुए खुद की जान बचाकर, सम्राट वृहद्रथ के हमले के जवाब में पलटवार करते हुए उसका वध कर दिया | देशभक्त मौर्य सैनिकों ने सेनापति पुष्यमित्र का साथ देकर पुष्यमित्र शुंग को मगध का सम्राट घोषित कर दिया | इस प्रकार १८४ . पू. में मौर्य साम्राज्य के नौवें अंतिम मौर्य शासक सम्राट वृहद्रथ मौर्य के साथ मगध की धरती से विशाल मौर्य सामराज्य का पतन हो गया |

पुष्यमित्र शुंग ने मगध सम्राट बनते ही, शुंग राजवंश की स्थापना की | सम्राट पुष्यमित्र ने एक सुगठित सेना का गठन करके दक्षिण भारत स्थित विदर्भ को जीतकर और यूनानियों को परास्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया | दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और साकल (आज का सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था | सम्राट पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिंदुकुश से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में मगध से लेकर पश्‍चिम में पंजाब तक फ़ैला हुआ था | भगवान रामचंद्र की धरती अयोध्या से, सम्राट पुष्यमित्र शुंग संबंधी प्राप्त शिलालेख जिसमें उसे “ द्विरश्वमेधयाजी “ कहा गया है, जिससे प्रतीत होता है की उसने दो बार अश्वमेध यज्ञ किए थे | पतंजलि द्वारा रचित “ महाभाष्य “ में लिखा है “ इह पुष्यमित्रं याजयामः “, मुनि पतंजलि ने यहाँ दर्शाया है की वह पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित हैं एवं यज्ञ उनके द्वारा कराया गया है | कालिदास द्वारा रचित “ मालविकाग्निमित्र ” के अनुसार सम्राट पुष्यमित्र का यूनानियों के साथ युद्ध का पता चलता है और उसके पोते वसुमित्र ने यवन सैनिकों पर आक्रमण करके उनके सम्राट मिनिंदर सहित, उन्हें सिन्धु पार धकेल दिया था | शुंग सामराज्य के प्रथम व महान सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने आर्यावर्त की धरती को बार बार ग्रीक शासकों के आक्रमण से छुटकारा दिलाया | इसके बाद आर्यावर्त के इतिहास में ग्रीक शासकों के आक्रमण का कोई भी जिक्र नहीं मिलता है | सम्राट पुष्यमित्र ने देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर मौर्य शासन काल में बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार के कारण ह्रास हुए वैदिक सभ्यता को बढ़ावा दिया | मौर्य शासन काल में जिन्होंने डर से बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था वे पुन: वैदिक धर्म में लौट आए | मगध सम्राट पुष्यमित्र शुंग की राह पर चलते हुए उज्जैन के महान सम्राट विक्रमादित्य और गुप्त साम्राज्य के शासकों ने वैदिक धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया | शुंग साम्राज्य को वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है | इस काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ था एवं मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना भी इसी युग में हुई थी | सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने कुल ३६ वर्ष, (१८५ – १४९ ई. पू.) तक शासन किया | इनके पश्चात शुंग वंश में नौ शासक और हुए जिनके नाम थे - अग्निमित्र (१४९ – १४१ ई. पू.), वसुज्येष्ठ (१४१ – १३१ ई. पू.), वसुमित्र (१३१ – १२४ ई. पू. ), अन्ध्रक (१२४ – १२२ ई. पू.), पुलिन्दक (१२२ – ११९ ई. पू.), घोष शुंग, वज्रमित्र शुंग, भगभद्र शुंग और देवभूति शुंग (८३ – ७३ ई. पू.) | शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उनके सचिव वसुदेव ने ७५ ई. पू. कण्व वंश की नींव डाली ।

- संतोष कुमार (लेखक)

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पुराण और उनके श्लोकों की कुल संख्या

Wednesday 8 August 2012

पुराणों के श्लोकों की कुल संख्या

०१. अग्निपुराण: १५०००
०२. कूर्मपुराण: १७०००
०३. गरुड़पुराण: १९०००
०४. पद्मपुराण: ५५०००
०५. ब्रह्मपुराण: १४०००
०६. ब्रह्माण्डपुराण: १२०००
०७. ब्रह्मवैवर्तपुराण: १८०००
०८. भविष्यपुराण: १४५००
०९. मार्कण्डेयपुराण: ९०००
१०. मत्सयपुराण: १४०००
११. नारदपुराण: २५०००
१२. लिंगपुराण: ११०००
१३. विष्णुपुराण: २३०००
१४. वाराहपुराण: २४०००
१५. वामनपुराण: १००००
१६. श्रीमद्भावतपुराण: १८०००
१७. शिवपुराण: २४०००
१८. स्कन्धपुराण: ८११००

नोट: उपरोक्त सारे पुराणों को मिलकर श्लोकों की कुल संख्या लगभग ४०३६०० (चार लाख तीन हजार छः सौ) है | साथ ही साथ रामायण में लगभग २४००० एवं महाभारत में लगभग ११०००० श्लोक हैं |

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" भूमिहार " शब्द के मायने - Meaning Of The Word ' Bhumihar '

Tuesday 7 August 2012

०१. 'भूम्या भूमेर्वा हारो भूमिहार:' - अर्थात जो भूमि के हार (Jewel) रूपी हों, वही भूमिहार कहे जाते हैं |

०२ . भूमिहार = भूमि + हर = भूमि को हरने वाला होता है भूमिहार | ऐसा समुदाय जो अपना आहार भूमि को हरने (जोतने) से प्राप्त करता है | खेती में लाए जाने वाला मुख्य औजार " हल " से जुड़े शब्द - १) हर (जोतना ), २) हरीश ३) हेंगा ४) हरियाली ५) हरा - भरा | मेरे कहने का तात्पर्य है ऐसा समुदाय जिसके भूमि को हरने से जीविकोपर्जन हेतु आहार प्राप्त होता है साथ ही साथ भूमि को हरने उपरांत हरियाली दिखाई पड़ती है | The Word Bhumihar Derives Its Name From Sanskrit Word Bhumi Meaning Land And Hara Meaning Maker.

०३. भूमिहार संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है जमींदार |

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भगवान परशुराम द्वारा द्दुष्ट क्षत्रियों का संहार (भगवान परशुराम भाग - २) Lord Parashurama Part 02

Sunday 5 August 2012

भगवान परशुराम द्वारा द्दुष्ट क्षत्रियों का २१ बार संहार

महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे | सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था, इसने घोर तपशया कर दत्तत्राई को प्रशन्न करके १००० हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया था, तभी से इसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा | इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है |

कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था | उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी | वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था |

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | कामधेनु गाय के अदभुत गुणों से प्रभावित होकर सहस्त्रार्जुन के मन में भीतर ही भीतर लालच समां चूका था | कामधेनु गाय को पाने की उसकी लालसा जाग चुकी थी | महर्षि जमदग्नि के समक्ष उसने कामधेनु गाय को पाने की अपनी लालसा जाहिर की | सहस्त्रार्जुन को महर्षि ने कामधेनु के विषय में सिर्फ यह कह कर टाल दिया की वह आश्रम के प्रबंधन और ऋषि कुल के जीवन के भरण - पोषण का एकमात्र साधन है | जमदग्नि ऋषि की बात सुनकर सहस्त्रार्जुन क्रोधित हो उठा, उसे लगा यह राजा का अपमान है तथा प्रजा उसका अपमान कैसे कर सकती है | उसने क्रोध के आवेश में आकार महर्षि जमदग्नि के आश्रम को तहस नहस कर दिया, पूरी तरह से उजाड़ कर रख दिया ऋषि आश्रम को और कामधेनु को जबर्दस्ती अपने साथ ले जाने लगा | वह क्रोधावाश दिव्य गुणों से संपन्न कामधेनु की अलौकिक शक्ति को भूल चूका था, जिसका परिणाम उसे तुरंत ही मिल गया, कामधेनु दुष्ट सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई और उसको अपने महल खाली हाँथ लौटना पड़ा |

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने विस्तारपूर्वक सारी बातें बताई | परशुराम क्रोध के आवेश में आग बबूला होकर दुराचारी सहस्त्राअर्जुन और उसकी पूरी सेना को नाश करने का संकल्प लेकर महिष्मती नगर पहुंचे | वहाँ सहस्त्रार्जुन और परशुराम के बीच घोर युद्ध हुआ | भृगुकुल शिरोमणि परशुराम ने अपने दिव्य परशु से दुष्ट अत्याचारी सहस्त्राबाहू अर्जुन की हजारों भुजाओं को काटते हुए उसका धड़ सर से अलग करके उसका वध कर डाला | जब महर्षि जमदग्नि को योगशक्ति से सहस्त्रार्जुन वध की बात का ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पुत्र परशुराम को प्रायश्चित करने का आदेश दिया | कहते हैं पितृभक्त परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि के आदेश का धर्मपूर्वक पालन किया |

भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर तपस्या किया करते थे | एक बार जब भगवान परशुराम अपने तपस्या में महेंद्र पर्वत पर लीन थे तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो पिता का कटा हुआ सिर और माता को विलाप करते देखा | माता रेणुका ने महर्षि के वियोग में विलाप करते हुए अपने छाती पर २१ बार प्रहार किया और सतीत्व को प्राप्त हो गईं | माता - पिता के अंतिम संस्कार के पश्चात्, अपने पिता के वध और माता की मृत्यु से क्रुद्ध परशुराम ने शपथ ली कि वह हैहयवंश का सर्वनाश करते हुए समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर देंगे | पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया |

नोट: इतिहास ने दुष्ट दुराचारिओं के द्वारा किये गए अन्याय और अत्याचार के कई पन्ने अपने अंदर संजोग कर रखा है | उदहारण में भगवान परशुराम ने जिस तरह अपने पुरुषार्थ और पराक्रम का परिचय देते हुए दुष्ट और अत्याचारी क्षत्रियों का अंत जगत के कल्याण के लिए किया, वह एक लौकिक सन्देश था समाज के अत्याचारी और दुष्ट पापियों के लिए | हर व्यक्ति को निडर होकर अन्याय और दुराचारियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना चाहिए, किन्तु निःस्वार्थ भाव से और उद्देश्य साथर्क होना चाहिए |

भगवान परशुराम भाग: पितृ भक्त परशुराम (लेखन में है)

- संतोष कुमार (लेखक)

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भगवान परशुराम भाग - १ Lord Parashurama Part 01

Wednesday 1 August 2012

भगवान परशुराम - Lord Parashurama

भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम भार्गव गोत्रिये, ब्रह्मर्षि भृगु के पपौत्र, महर्षि ऋचिक के पौत्र तथा महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के पाँच पुत्रों में परशुराम सबसे छोटे पुत्र हुए | उनका जन्म वैशाख माह में शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था | भगवान परशुराम का वास्तविक नाम राम था लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शंकर को प्रसन्न करके उनके अमोघ दिव्य अस्त्र ' परशु ' ( फरसा ) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम कहलाये | महर्षि जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये ' जामदग्न्य ' भी कहे जाते हैं | भगवान शंकर से परशुराम ने अस्त्र - शस्त्र कि विद्या में निपुणता हासिल की थी | पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान परशुराम अहंकारी और द्दुष्ट क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए जाने जाते हैं | भगवान परशुराम का जिक्र त्रेता युग रामायण काल और द्वापर युग में महाभारत काल में देखने को मिलता है, इस विषय पर मैं चर्चा अपने अन्य लेख में करने वाला हूँ |

भगवान परशुराम के जन्म से सम्बंधित :-प्राचीन काल में कन्नौज नामक राज्य पर क्षत्रिये वंश के राजा गाधि नाम के एक राजा राज्य किया करते थे | सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या उनकी पुत्री थी | ब्रह्मर्षि भृगु पुत्र महर्षि ऋषीक ने सत्यवती की सुंदरता पर मोहित होकर राजा गाधि के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा | चुकी महर्षि ब्राह्मण कुल से थे और गाधि क्षत्रिये वंश के, यह बात राजा भलीभांति जानते थे, उन्हें विवाह का प्रस्ताव मन ही मन स्वीकार न था | राजा ब्राह्मणों का आदर किया करते थे इसलिए भृगुनन्दन के प्रस्ताव का तिरस्कार करने का प्रश्न ही नहीं उठता था | राजा गाधि ने विवाह के प्रस्ताव को आदर पूर्वक टालने की मन ही मन योजना बनाई और महर्षि ऋषीक के समक्ष विवाह करने के लिए एक शर्त रखी | शर्त यह था की १००० स्वेत अश्वों जिनका एक कान का रंग काला हो, अगर महर्षि लेकर गाधि के समक्ष प्रस्तुत हो जाएँ तो वह विवाह के लिए तैयार हैं | प्रश्न जटिल था परन्तु असंभव नहीं | महर्षि ऋषीक ने शर्त को ध्यान में रखकर पवन देवता का आह्वाहन किया और अपनी समस्या बताई | पवन देवता ने उनकी यह समस्या को पलभर में दूर करते हुए शर्त के अनुसार १००० अश्वों को महर्षि को दान में दिया | महर्षि उन १००० अश्वों को को लेकर राजा के दरबार में उपस्थित हुए | शर्त पूर्ण हो चूका थी अब राजा के पास विवाह करने के अलावा कोई मार्ग नहीं शेष रह गया था | इस प्रकार भृगुनन्दन महर्षि ऋषीक और कन्नौज के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह संपन्न हुआ | भृगु ऋषि ने अपनी अत्यंत रूपवान पुत्रवधू से खुश होकर आशीर्वाद दिया तथा उसे वर माँगने के लिये कहा | सत्यवती ने अपने श्वसुर को प्रसन्न देखकर वर स्वरुप उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना जाहिर की । सत्यवती की मात्र भक्ति से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उसे एक और वर मांगने को कहा, तो इसबार सत्यवती ने स्वयं के लिए पुत्र की कमाना जाहिर की | भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हों तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करे और तुम अपनी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना और फिर इन चरुओं का सावधानी पूर्वक अलग - अलग सेवन कर लेना | इधर सत्यवती की माँ के मन में खोट आ चूका था उसने सोंचा कि महर्षि भृगु ने अपने पुत्रवधू को अवश्य ही उत्तम सन्तान होने का चरु दिया होगा, तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री सत्यवती के चरु से छल पूर्वक बदल दिया | इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया | महर्षि भृगु को अपने योगशक्ति से सत्यवती की माता द्वारा किये गए क्षल का ज्ञान हो चूका था | भृगु ऋषि ने अपनी पुत्रवधू से अपने योगशक्ति वाली बात कही कि तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है, मेरे वर का प्रभाव खत्म नहीं हो सकता, अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी | सत्यवती ने सत्यता को जानकार महर्षि भृगु से करुना पूर्वक विनती की कि आप मुझे आशीर्वाद दें कि मेरे पुत्र में ब्राह्मण का आचरण हो, और मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे | भृगु ऋषि ने विनती को स्वीकार करते हुए तथास्तु का वरदान दे दिया | समय के साथ सत्यवती कि माता के गर्भ से ऋषि विश्वामित्र और सत्यवती के गर्भ से महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ | भृगु ऋषि के पौत्र और महर्षि ऋचिक पुत्र जमदग्नि जिनकी गणना सप्तऋषियों में होती है के बड़े होने पर उनका विवाह राजा प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ | महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम | ब्रह्मर्षि वंशिये भगवान परशुराम आजीवन बाल ब्रह्मचारी रहे |

नोट: इतिहास से जुड़े इस क्षल का परिणाम आप देख चुके हैं | क्षल कपट से जुड़े कई इतिहास आपको ज्ञात भी होगा | इतिहास ने अपने पन्नों में क्षल कपट और दगे से जुडी कई कहानियों को समेटे रखा है और कालांतर में ऐसे कई पन्ने इतिहास से जुड़े |

- संतोष कुमार (लेखक)

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