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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’

Sunday 11 November 2012

ब्रह्मर्षि समाज के महान विभूति राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर

हिन्दी साहित्य जगत में राष्ट्र स्तर पर स्थान बना चुके रामधारी सिंह दिनकर एक लेखक, सुविख्यात कवि और निबंधकार थे | स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इन्हें प्रभावशाली विद्रोही कवि का स्थान मिला और स्वाधीनता के उपरांत राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे | इनका जन्म २३ सितम्बर को बिहार के तत्कालीन जिले मुंगेर वर्तमान जिला बेगुसराय अंतर्गत सिमरिया नामक ग्राम में एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ था | इनके पिता रवि सिंह एक सामान्य किसान थे और इनकी माता का नाम मनरूप देवी था | दिनकर जब महज दो वर्ष के थे तो इनके पिता का निधन हो गया | इनकी प्रारंभिक व प्राथमिक शिक्षा अपने ग्राम के पाठशाला में हुई एवं मिडिल स्कुल की शिक्षा इन्होने पास के ही ग्राम बोरो से प्राप्त की | मोकामाघाट से हाईस्कूल की शिक्षा के दौरान ही ये विवाहित होने के साथ एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होने से इन्हें पिता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ | १९२८ में मैट्रिक की शिक्षा पूरी करने के उपरांत १९२९ में प्राणभंग नामक इनकी प्रथम रचना प्रकाशित हुई | पटना विश्वविद्यालय से १९३२ में इतिहास विषय से बी. ए. आनर्स की डिग्री प्राप्त की |

बी. ए. आनर्स की डिग्री प्राप्त करने के एक वर्ष पश्चात ही एक स्कूल में ये प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए | इसके बाद १९३४ से १९४७ ई. तक बिहार सरकार में सब-रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर आसीन रहे | राष्ट्र के स्वाधीनता प्राप्ति के बाद १९५० से १९५२ ई. के दौरान वह मुजफ्फरपुर कालेज में हिंदी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष रहे | १९५२ में देश के प्रथम संसद में राज्यसभा के लिए मनोनीत होने के साथ १२ वर्षों  तक संसद सदस्य रहे | १९६४ में भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर नियुक्त किये गए पर १९६५ में त्याग पत्र दे दिया | इसके उपरांत वर्ष १९६५ में ही भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार नियुक्त हुए और १९७१. तक कार्य का संपादन किया |

हिंदी साहित्य में विशेष योगदान के लिए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने १५५९ में इन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया | इसी वर्ष इन्हें पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ | भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति व बिहार के राज्यपाल डा. जाकिर हुसैन ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानध उपाधि से सम्मानित किया | १९६८ में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य - चूड़ामणि से अलंकृत किया | १९७२ में महाकाव्य 'उर्वशी' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया |

रामधारी सिंह दिनकरप्रमुख कृतियाँ: ०१. प्राणभंग (१९२९) ०२. रसवंती (१९३९) ०३. द्वन्दगीत (१९४०) ०४. कुरुक्षेत्र (१९४६) ०५. बापू (१९४७) ०६. इतिहास के आंसू (१९५१) ०७. नीम के पत्ते (१९५४) ०८. उर्वशी (१९६१) ०९. परशुराम की प्रतिज्ञा (१९६३) १०. हे राम (१९६६) ११. दिनकर की डायरी (१९६६) |

रामधारी सिंह दिनकरकी प्रमुख कृति कुरुक्षेत्र की एक पंक्ति - " क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो " |

२४ अप्रैल १९७४ मद्रास,  तमिलनाडु में इनका निधन हुआ, इसके साथ ही भारत वर्ष ने एक महान विभूति को खो दिया | जे. पी. आन्दोलन के वक्त राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर के बोल सिहासन खाली करो कि जनता आती है “, आज भी लोगों के जुबान पर सुनने को मिलते हैं | राष्ट्रकवि दिनकरके समृति में भारत सरकार द्वारा वर्ष १९९९ में डाक टिकट जारी किया गया | ब्रह्मर्षि समाज के महान विभूति आपको समाज की ओर से शत शत नमन |

- संतोष कुमार (लेखक)

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भीष्म पितामह “ कैलाशपति मिश्र “

Sunday 4 November 2012

ब्रह्मर्षि स्तंभ भीष्म पितामहकैलाशपति मिश्र “

बिहार – झारखण्ड भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक एवं बिहार के जनसंघ की आधारशिला रखने वाले, भाजपा के भीष्म पितामह के नाम से विख्यात, ब्रह्मर्षि स्तंभ श्री कैलाशपति मिश्र का निधन शनिवार ३ नवंबर को दोपहर के एक बजे, पटना में हो गया | वे ८६ वर्ष के थे, इनका जन्म ५ अक्टूबर १९२६ को भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ | इनके पिता का नाम पंडित हजारी मिश्र था और वे बक्सर जिला के गाँव “ दुधारचक ” के रहने वाले थे | १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में इनकी सक्रिय भागीदारी रही और छात्र जीवन में ही इन्हें जेल जाना पड़ा | आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा लेने वाले त्यागी महापुरुष एवं समाजसेवी कैलाशपति जी, सन १९४५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने के साथ अपने अटल संकल्प को बखूबी निभाते हुए मरते दम तक संघ परिवार की सेवा की | भाजपा के इस महाप्रचाकर को १९५९ में पहली बार बिहार प्रदेश के संगठन मंत्री के तौर पर चुना गया | १९७७ के चुनाव के दौरान, पटना जिले के विक्रम विधानसभा क्षेत्र सीट पर अपनी जीत को दर्ज कराते हुए पहली बार विधायक बने और जनता पार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की सरकार में वित्त मंत्री के पद से इन्हें नवाजा गया | संघ, बिहार के अपने इस जौहरी को बखूबी जानती थी, १९८० में इन्हें पहली बार बिहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद से मनोनीत किया गया | १९८४ से लेकर १९९० के दशक तक राज्यसभा सदस्य रहे | कालांतर में वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय मंत्री के साथ पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तक बनाये गए | राष्ट्रीय मंत्री और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद पर आसीन रहते हुए वे कई राज्यों के संगठन मंत्री के रूप में भी कार्यरथ रहे | इन्हें गुजरात के साथ - साथ राजस्थान के राज्यपाल बनने का भी गौरव प्राप्त हुआ |

इनकी लिखी पुस्तकें १) पथ के संस्मरण (आत्मकथा) २) चेतना के स्वर (कविता संग्रह)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रन्तिकारी, भारतीय जनता पार्टी के रत्न, ब्रह्मर्षि कुलभुषण कैलाशपति मिश्र जी आज हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनकी  विचारधाराएं सदैव हमारा मार्ग दर्शन करते रहेंगे | 

- संतोष कुमार (लेखक)

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वत्स गोत्रिये सोनभदरिया मूल वाले भूमिहार ब्राह्मणों का इतिहास

Friday 28 September 2012

महर्षि वत्स के वंशज सोनभदरिया भूमिहार

गोत्र - वत्स, मूल - सोनभदरिया (भूमिहार) - सोनभदरिया मूल के भूमिहारों के सम्बन्ध में जब मैंने अपना खोज शुरू किया तो पाया की ये लोग सोन नदी के तट से जुड़े रहे, इनका निवास स्थान मूलतः सोन नदी के तट के आस पास रहा | सोन नदी का उद्गम स्थल अमरकंटक,  मध्यप्रदेश है और इसकी धारा उत्तर प्रदेश के जिले सोनभद्र से होते हुए बिहार तथा झारखण्ड में प्रवेश करती है | बिहार में भोजपुरी बोलने वाले क्षेत्र से प्रवेश करते हुए मगध के क्षेत्र को छूते हुए अंततः गंगा में विलीन हो जाती है | सोनभदरिया मूल वाले लोग आज के समय में बिहार के साथ - साथ अन्यत्र भी बसे हुए हैं, लेकिन जैसा की देखने को मिलता है की सोनभदरिया भूमिहारों का अधिकांश गाँव सोन नदी के किनारे वाले इलाकों में ही है | वर्तमान में जिला रोहतास, भोजपुर, औरंगाबाद, अरवल, जहानाबाद और पटना जिले के नजदीक वाले इलाके बिक्रम तक एक क्रम में इनके गाँव देखने को मिलते हैं |

इतिहास का रहस्य जो भी हो लेकिन इनका मूल रूप से सोन नदी के तट के आस पास के इलाकों पर बसे इनके ऐतिहासिक गाँव एक सच्चाई को बयान करती है, जिसे कदापि झुठलाया नहीं जा सकता है की मूलतः ये लोग इसी इलाके के रहने वाले हैं | सोनभदरिया भूमिहार परिवार में वृद्ध लोगों से मिलने के उपरांत मुझे उनसे प्राप्त वंशावली के आधार पर सोनभदरिया भूमिहारों के दो गढों का जिक्र मिलता है | लोगों का यहाँ तक कहना है की ये दोनों गढ़ एक ही पिता से उत्पन्न दो सहोदर भाइयों के थे | १) कयाल गढ़ २) नोनार गढ़ | काल में विषम परस्थितियों की वजह कई लोग इन गाँव से अन्यत्र कहीं और जाकर बस गये | वैसे बिहार राज्य के अरवल जिले, प्रखंड - सोनभद्र वंशी सूर्यपुर, पंचायत – वंशी सोनभद्र के अंतर्गत ग्राम – सोनभद्र का जिक्र मिलता है | कयाल गढ़ और नोनार गढ़ जो की वास्तव में सोनभदरिया भूमिहारों से जुड़ा है, इसका अरवल के सोनभद्र ग्राम के नजदीक होना भी एक सच्चाई है | कहीं सोनभद्र गाँव से तो इनका सम्बन्ध नहीं है, हो सकता है की इतिहास में सोनभदरिया भूमिहार का सम्बन्ध इस गाँव से रहा हो और इसी सोनभद्र गाँव के नाम पर इनका मूल स्थान के आधार पर ये लोग सोनभदरिया के नाम से जाने जाते हों | वैसे सोनभदरिया मूल वाले भूमिहार चुकी सोन नदी के तट से जुड़े हैं, इसलिए यह भी हो सकता की इस वजह से भी ये वत्स गोत्रिये, सोनभदरिया के नाम से जाने जाते हों |

१ ) कयाल गढ़ : ग्राम - कयाल, पंचायत - कयाल, प्रखंड - करपी, जिला - अरवल (बिहार)

२) नोनार गढ़ : ग्राम - नोनार, पंचायत - गोडीहान, प्रखंड - दाउदनगर, जिला - औरंगाबाद (बिहार)

- संतोष कुमार (लेखक)  

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पुष्यमित्र शुंग – वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के जनक “ शुंग राजवंश “ Pushyamitra Sunga (Sunga Dynasty)

Tuesday 14 August 2012

सम्राट पुष्यमित्र शुंग

पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ के प्रधान सेनापति थे | मगध सम्राट व्रहद्रथ मौर्य की हत्या कर, पुष्यमित्र मगध सम्राट बने और शुंग राजवंश की स्थापना की | शुंग राजवंश के संस्थापक का जन्म ब्राह्मण, शिक्षक परिवार में हुआ था | इनके गोत्र के सम्बन्ध में थोडा मतभेद है, पतांजलि के मुताबिक भारद्वाज गोत्र और कालिदास द्वारा रचित “ मालविकाग्निमित्रम “ के अनुसार कश्यप गोत्र कहा जाता है | वैसे एक बात यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगा की ब्राह्मण कुल में जन्मे सम्राट पुष्यमित्र शुंग कर्म से क्षत्रिय ब्राह्मण रहे, जो यह सिद्ध करता है की वह एक अयाचक ब्राह्मण थे | “ साहसी मोहयालों का इतिहास “ नामक पुस्तक के लेखक पी. एन बाली ने पुष्यमित्र शुंग को अपने कथित पुस्तक में भूमिहार दर्शाया है | शुंग राजवंश की स्थापना पर विस्तारपूर्वक पढ़ें -

मगध साम्राज्य के नन्द वंशीय सम्राट धनानन्द के साथ नन्द वंश का सूर्याष्त तथा मगध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के साथ मौर्य साम्राज्य के उदय का श्रेय ब्राह्मण “ चाणक्य ” को जाता है | आचार्य चाणक्य ने अपने जीवित रहने तक विश्व की प्राचीनतम हिंदू धर्म की वैदिक पद्ति को निभाते हुए मगध की धरती को बौद्ध धर्म के प्रभाव से बचा कर रखा | किन्तु सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म को अपना कर लगभग २० वर्षों तक एक बौद्ध सम्राट के रूप में मगध पर शासन किया | अशोक ने अपने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया इसका प्रभाव मौर्य वंश के नौवें व अंतिम मगध सम्राट वृहद्रथ तक रहा |

जैसा की देखने को मिलता है, सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन काल में मगध साम्राज्य की सीमा उत्तरी भारत तक ही थी | चंद्रगुप्त मौर्य अपने अंतिम दिनों में जैन धर्म को अपनाकर, राजपाट अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंपकर तीर्थ के लिए रवाना हो गए थे | बिन्दुसार ने दक्षिण भारत के ऊचांई वाले क्षेत्रों पर विजय प्राप्त किया | २७३ ई.पू. में बिन्दुसार पुत्र सम्राट अशोक जब गद्दी पर बैठे तो उन्होंने अपने शासन का विस्तार करते हुए आज के समूचे भारत, केवल सुदूर दक्षिण के कुछ भूभाग को छोड़कर, नेपाल की घाटी, बलूचिस्ताजन और अफगानिस्तान तक मगध साम्राज्य का आधिपत्य कायम किया | परन्तु मगध सम्राट अशोक के द्वारा बौद्ध धर्मं अपनाने की वजह से, उससे लेकर अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ तक बौद्ध धर्म के अत्यधिक प्रचार एवं अहिंसा के प्रसार की वजह से वृहद्रथ के गद्दी पर बैठने तक मगध साम्राज्य सिमट कर रह गई | व्रहद्रथ का शासन आज का उत्तर भारत, पंजाब व अफगानिस्तान तक सिमित रह गया | उसके शासन काल में मगध सामराज्य पूरा बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो चुका था, आर्यावर्त की पावन धरती पर बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का केंद्र बन चूका था |

जहाँ सम्राट चंद्रगुप्त के शासन काल में ग्रीक शासक सिकंदर महान व उसका सेनापति सैल्युकस जैसे वीरों का भारत विजय का मंसूबा पूरा नहीं हो सका था, और अपना ह्रास करा वापस जा चुके थे, वहीं वृहद्रथ के शासन काल में यूनानियों (ग्रीक) ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखाया | ग्रीक शासक मिनिंदर जिसे बौद्ध ग्रन्थ में मिलिंद कहा गया है, ने वृहद्रथ मौर्य की अहिंसात्मक नीति को ध्यान में रखकर भारत विजय का सपना देखकर आक्रमण की योजना बनाई | मिनिंदर न बौद्ध धर्म गुरूओं को झाँसा देकर भारत में अपने यवन (यूनानी) सेना सहित प्रवेश किया | बौद्ध भिक्षु का वेश धरकर, मगध की सीमा से लगे बौद्ध मठों में अपने यवन सेना और हथियार सहित चोरी छुपे शरण ली | इसके भारत पर आक्रमण के मनसूबे में कई राष्ट्र द्रोही बौद्ध गुरूवों ने इसका साथ दिया था | यवन मिनिंदर ने भारत विजय के पश्चात् बौद्ध धर्म अपनाने की इक्छा इन राष्ट्र द्रोही बौद्ध धर्म गुरुवों के समक्ष रखी थी | राष्ट्र द्रोही बौद्ध धर्म गुरूवों के द्वारा एक विदेशी यूनान शासक एवं उसके सैनिको का बौद्ध मठों में आगमन से बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह का केंद्र बन चूका था | मगध साम्राज्य के देशभक्त सेनापति पुष्यमित्र शुंग को इस बात की भनक लग चुकी थी | पुष्यमित्र ने सम्राट वृहद्रथ से विदेशी यवनों के मठों में छिपे होने की बात का जिक्र कर मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी, जिसे बौद्ध धर्मी वृहद्रथ ने मना कर दिया | राष्ट्र भक्त पुष्यमित्र ने मगध की रक्षा को अपना राष्ट्र धर्म समझकर सम्राट वृहदरथ की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए मठों की तलाशी लेना शुरू कर दिया | मठों में बौद्ध वेश में छिपे सभी विदेशी यूनानी सैनिकों को पकड़ कर सेनापति पुष्यमित्र के आदेश से उनका कत्लेआम कर दिया गया | किन्तु ग्रीक शासक मिनिंदर किसी तरह वहाँ से बच निकला | इसके साथ सभी राष्ट द्रोही बौद्ध धर्म गुरुओं को भी कैद कर लिया गया | सम्राट वृहद्रथ अपने आदेश के उल्लंघन के साथ पूरे घटना क्रम को लेकर सेनापति पुष्यमित्र से नाराज था | यवनों और देशद्रोही बौद्धों को सजा देकर पुष्यमित्र जब मगध में प्रवेश हुए तो उस वक्त सम्राट वृहद्रथ सैनिक परेड की जाँच में लगा था | सम्राट और पुष्यमित्र शुंग के बीच परेड जाँच के वक़्त पूरे घटना चक्र, बौद्ध मठों को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया | सम्राट वृहद्रथ मौर्य ने अपने सेनापति पुष्यमित्र शुंग पर धोखे से हमला करना चाहा, परन्तु पुष्यमित्र ने सतर्कता बरते हुए खुद की जान बचाकर, सम्राट वृहद्रथ के हमले के जवाब में पलटवार करते हुए उसका वध कर दिया | देशभक्त मौर्य सैनिकों ने सेनापति पुष्यमित्र का साथ देकर पुष्यमित्र शुंग को मगध का सम्राट घोषित कर दिया | इस प्रकार १८४ . पू. में मौर्य साम्राज्य के नौवें अंतिम मौर्य शासक सम्राट वृहद्रथ मौर्य के साथ मगध की धरती से विशाल मौर्य सामराज्य का पतन हो गया |

पुष्यमित्र शुंग ने मगध सम्राट बनते ही, शुंग राजवंश की स्थापना की | सम्राट पुष्यमित्र ने एक सुगठित सेना का गठन करके दक्षिण भारत स्थित विदर्भ को जीतकर और यूनानियों को परास्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया | दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और साकल (आज का सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था | सम्राट पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिंदुकुश से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में मगध से लेकर पश्‍चिम में पंजाब तक फ़ैला हुआ था | भगवान रामचंद्र की धरती अयोध्या से, सम्राट पुष्यमित्र शुंग संबंधी प्राप्त शिलालेख जिसमें उसे “ द्विरश्वमेधयाजी “ कहा गया है, जिससे प्रतीत होता है की उसने दो बार अश्वमेध यज्ञ किए थे | पतंजलि द्वारा रचित “ महाभाष्य “ में लिखा है “ इह पुष्यमित्रं याजयामः “, मुनि पतंजलि ने यहाँ दर्शाया है की वह पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित हैं एवं यज्ञ उनके द्वारा कराया गया है | कालिदास द्वारा रचित “ मालविकाग्निमित्र ” के अनुसार सम्राट पुष्यमित्र का यूनानियों के साथ युद्ध का पता चलता है और उसके पोते वसुमित्र ने यवन सैनिकों पर आक्रमण करके उनके सम्राट मिनिंदर सहित, उन्हें सिन्धु पार धकेल दिया था | शुंग सामराज्य के प्रथम व महान सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने आर्यावर्त की धरती को बार बार ग्रीक शासकों के आक्रमण से छुटकारा दिलाया | इसके बाद आर्यावर्त के इतिहास में ग्रीक शासकों के आक्रमण का कोई भी जिक्र नहीं मिलता है | सम्राट पुष्यमित्र ने देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर मौर्य शासन काल में बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार के कारण ह्रास हुए वैदिक सभ्यता को बढ़ावा दिया | मौर्य शासन काल में जिन्होंने डर से बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था वे पुन: वैदिक धर्म में लौट आए | मगध सम्राट पुष्यमित्र शुंग की राह पर चलते हुए उज्जैन के महान सम्राट विक्रमादित्य और गुप्त साम्राज्य के शासकों ने वैदिक धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया | शुंग साम्राज्य को वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है | इस काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ था एवं मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना भी इसी युग में हुई थी | सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने कुल ३६ वर्ष, (१८५ – १४९ ई. पू.) तक शासन किया | इनके पश्चात शुंग वंश में नौ शासक और हुए जिनके नाम थे - अग्निमित्र (१४९ – १४१ ई. पू.), वसुज्येष्ठ (१४१ – १३१ ई. पू.), वसुमित्र (१३१ – १२४ ई. पू. ), अन्ध्रक (१२४ – १२२ ई. पू.), पुलिन्दक (१२२ – ११९ ई. पू.), घोष शुंग, वज्रमित्र शुंग, भगभद्र शुंग और देवभूति शुंग (८३ – ७३ ई. पू.) | शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उनके सचिव वसुदेव ने ७५ ई. पू. कण्व वंश की नींव डाली ।

- संतोष कुमार (लेखक)

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पुराण और उनके श्लोकों की कुल संख्या

Wednesday 8 August 2012

पुराणों के श्लोकों की कुल संख्या

०१. अग्निपुराण: १५०००
०२. कूर्मपुराण: १७०००
०३. गरुड़पुराण: १९०००
०४. पद्मपुराण: ५५०००
०५. ब्रह्मपुराण: १४०००
०६. ब्रह्माण्डपुराण: १२०००
०७. ब्रह्मवैवर्तपुराण: १८०००
०८. भविष्यपुराण: १४५००
०९. मार्कण्डेयपुराण: ९०००
१०. मत्सयपुराण: १४०००
११. नारदपुराण: २५०००
१२. लिंगपुराण: ११०००
१३. विष्णुपुराण: २३०००
१४. वाराहपुराण: २४०००
१५. वामनपुराण: १००००
१६. श्रीमद्भावतपुराण: १८०००
१७. शिवपुराण: २४०००
१८. स्कन्धपुराण: ८११००

नोट: उपरोक्त सारे पुराणों को मिलकर श्लोकों की कुल संख्या लगभग ४०३६०० (चार लाख तीन हजार छः सौ) है | साथ ही साथ रामायण में लगभग २४००० एवं महाभारत में लगभग ११०००० श्लोक हैं |

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" भूमिहार " शब्द के मायने - Meaning Of The Word ' Bhumihar '

Tuesday 7 August 2012

०१. 'भूम्या भूमेर्वा हारो भूमिहार:' - अर्थात जो भूमि के हार (Jewel) रूपी हों, वही भूमिहार कहे जाते हैं |

०२ . भूमिहार = भूमि + हर = भूमि को हरने वाला होता है भूमिहार | ऐसा समुदाय जो अपना आहार भूमि को हरने (जोतने) से प्राप्त करता है | खेती में लाए जाने वाला मुख्य औजार " हल " से जुड़े शब्द - १) हर (जोतना ), २) हरीश ३) हेंगा ४) हरियाली ५) हरा - भरा | मेरे कहने का तात्पर्य है ऐसा समुदाय जिसके भूमि को हरने से जीविकोपर्जन हेतु आहार प्राप्त होता है साथ ही साथ भूमि को हरने उपरांत हरियाली दिखाई पड़ती है | The Word Bhumihar Derives Its Name From Sanskrit Word Bhumi Meaning Land And Hara Meaning Maker.

०३. भूमिहार संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है जमींदार |

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भगवान परशुराम द्वारा द्दुष्ट क्षत्रियों का संहार (भगवान परशुराम भाग - २) Lord Parashurama Part 02

Sunday 5 August 2012

भगवान परशुराम द्वारा द्दुष्ट क्षत्रियों का २१ बार संहार

महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे | सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था, इसने घोर तपशया कर दत्तत्राई को प्रशन्न करके १००० हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया था, तभी से इसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा | इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है |

कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था | उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी | वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था |

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | कामधेनु गाय के अदभुत गुणों से प्रभावित होकर सहस्त्रार्जुन के मन में भीतर ही भीतर लालच समां चूका था | कामधेनु गाय को पाने की उसकी लालसा जाग चुकी थी | महर्षि जमदग्नि के समक्ष उसने कामधेनु गाय को पाने की अपनी लालसा जाहिर की | सहस्त्रार्जुन को महर्षि ने कामधेनु के विषय में सिर्फ यह कह कर टाल दिया की वह आश्रम के प्रबंधन और ऋषि कुल के जीवन के भरण - पोषण का एकमात्र साधन है | जमदग्नि ऋषि की बात सुनकर सहस्त्रार्जुन क्रोधित हो उठा, उसे लगा यह राजा का अपमान है तथा प्रजा उसका अपमान कैसे कर सकती है | उसने क्रोध के आवेश में आकार महर्षि जमदग्नि के आश्रम को तहस नहस कर दिया, पूरी तरह से उजाड़ कर रख दिया ऋषि आश्रम को और कामधेनु को जबर्दस्ती अपने साथ ले जाने लगा | वह क्रोधावाश दिव्य गुणों से संपन्न कामधेनु की अलौकिक शक्ति को भूल चूका था, जिसका परिणाम उसे तुरंत ही मिल गया, कामधेनु दुष्ट सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई और उसको अपने महल खाली हाँथ लौटना पड़ा |

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने विस्तारपूर्वक सारी बातें बताई | परशुराम क्रोध के आवेश में आग बबूला होकर दुराचारी सहस्त्राअर्जुन और उसकी पूरी सेना को नाश करने का संकल्प लेकर महिष्मती नगर पहुंचे | वहाँ सहस्त्रार्जुन और परशुराम के बीच घोर युद्ध हुआ | भृगुकुल शिरोमणि परशुराम ने अपने दिव्य परशु से दुष्ट अत्याचारी सहस्त्राबाहू अर्जुन की हजारों भुजाओं को काटते हुए उसका धड़ सर से अलग करके उसका वध कर डाला | जब महर्षि जमदग्नि को योगशक्ति से सहस्त्रार्जुन वध की बात का ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पुत्र परशुराम को प्रायश्चित करने का आदेश दिया | कहते हैं पितृभक्त परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि के आदेश का धर्मपूर्वक पालन किया |

भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर तपस्या किया करते थे | एक बार जब भगवान परशुराम अपने तपस्या में महेंद्र पर्वत पर लीन थे तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो पिता का कटा हुआ सिर और माता को विलाप करते देखा | माता रेणुका ने महर्षि के वियोग में विलाप करते हुए अपने छाती पर २१ बार प्रहार किया और सतीत्व को प्राप्त हो गईं | माता - पिता के अंतिम संस्कार के पश्चात्, अपने पिता के वध और माता की मृत्यु से क्रुद्ध परशुराम ने शपथ ली कि वह हैहयवंश का सर्वनाश करते हुए समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर देंगे | पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया |

नोट: इतिहास ने दुष्ट दुराचारिओं के द्वारा किये गए अन्याय और अत्याचार के कई पन्ने अपने अंदर संजोग कर रखा है | उदहारण में भगवान परशुराम ने जिस तरह अपने पुरुषार्थ और पराक्रम का परिचय देते हुए दुष्ट और अत्याचारी क्षत्रियों का अंत जगत के कल्याण के लिए किया, वह एक लौकिक सन्देश था समाज के अत्याचारी और दुष्ट पापियों के लिए | हर व्यक्ति को निडर होकर अन्याय और दुराचारियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना चाहिए, किन्तु निःस्वार्थ भाव से और उद्देश्य साथर्क होना चाहिए |

भगवान परशुराम भाग: पितृ भक्त परशुराम (लेखन में है)

- संतोष कुमार (लेखक)

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भगवान परशुराम भाग - १ Lord Parashurama Part 01

Wednesday 1 August 2012

भगवान परशुराम - Lord Parashurama

भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम भार्गव गोत्रिये, ब्रह्मर्षि भृगु के पपौत्र, महर्षि ऋचिक के पौत्र तथा महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के पाँच पुत्रों में परशुराम सबसे छोटे पुत्र हुए | उनका जन्म वैशाख माह में शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था | भगवान परशुराम का वास्तविक नाम राम था लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शंकर को प्रसन्न करके उनके अमोघ दिव्य अस्त्र ' परशु ' ( फरसा ) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम कहलाये | महर्षि जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये ' जामदग्न्य ' भी कहे जाते हैं | भगवान शंकर से परशुराम ने अस्त्र - शस्त्र कि विद्या में निपुणता हासिल की थी | पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान परशुराम अहंकारी और द्दुष्ट क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए जाने जाते हैं | भगवान परशुराम का जिक्र त्रेता युग रामायण काल और द्वापर युग में महाभारत काल में देखने को मिलता है, इस विषय पर मैं चर्चा अपने अन्य लेख में करने वाला हूँ |

भगवान परशुराम के जन्म से सम्बंधित :-प्राचीन काल में कन्नौज नामक राज्य पर क्षत्रिये वंश के राजा गाधि नाम के एक राजा राज्य किया करते थे | सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या उनकी पुत्री थी | ब्रह्मर्षि भृगु पुत्र महर्षि ऋषीक ने सत्यवती की सुंदरता पर मोहित होकर राजा गाधि के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा | चुकी महर्षि ब्राह्मण कुल से थे और गाधि क्षत्रिये वंश के, यह बात राजा भलीभांति जानते थे, उन्हें विवाह का प्रस्ताव मन ही मन स्वीकार न था | राजा ब्राह्मणों का आदर किया करते थे इसलिए भृगुनन्दन के प्रस्ताव का तिरस्कार करने का प्रश्न ही नहीं उठता था | राजा गाधि ने विवाह के प्रस्ताव को आदर पूर्वक टालने की मन ही मन योजना बनाई और महर्षि ऋषीक के समक्ष विवाह करने के लिए एक शर्त रखी | शर्त यह था की १००० स्वेत अश्वों जिनका एक कान का रंग काला हो, अगर महर्षि लेकर गाधि के समक्ष प्रस्तुत हो जाएँ तो वह विवाह के लिए तैयार हैं | प्रश्न जटिल था परन्तु असंभव नहीं | महर्षि ऋषीक ने शर्त को ध्यान में रखकर पवन देवता का आह्वाहन किया और अपनी समस्या बताई | पवन देवता ने उनकी यह समस्या को पलभर में दूर करते हुए शर्त के अनुसार १००० अश्वों को महर्षि को दान में दिया | महर्षि उन १००० अश्वों को को लेकर राजा के दरबार में उपस्थित हुए | शर्त पूर्ण हो चूका थी अब राजा के पास विवाह करने के अलावा कोई मार्ग नहीं शेष रह गया था | इस प्रकार भृगुनन्दन महर्षि ऋषीक और कन्नौज के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह संपन्न हुआ | भृगु ऋषि ने अपनी अत्यंत रूपवान पुत्रवधू से खुश होकर आशीर्वाद दिया तथा उसे वर माँगने के लिये कहा | सत्यवती ने अपने श्वसुर को प्रसन्न देखकर वर स्वरुप उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना जाहिर की । सत्यवती की मात्र भक्ति से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उसे एक और वर मांगने को कहा, तो इसबार सत्यवती ने स्वयं के लिए पुत्र की कमाना जाहिर की | भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हों तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करे और तुम अपनी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना और फिर इन चरुओं का सावधानी पूर्वक अलग - अलग सेवन कर लेना | इधर सत्यवती की माँ के मन में खोट आ चूका था उसने सोंचा कि महर्षि भृगु ने अपने पुत्रवधू को अवश्य ही उत्तम सन्तान होने का चरु दिया होगा, तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री सत्यवती के चरु से छल पूर्वक बदल दिया | इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया | महर्षि भृगु को अपने योगशक्ति से सत्यवती की माता द्वारा किये गए क्षल का ज्ञान हो चूका था | भृगु ऋषि ने अपनी पुत्रवधू से अपने योगशक्ति वाली बात कही कि तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है, मेरे वर का प्रभाव खत्म नहीं हो सकता, अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी | सत्यवती ने सत्यता को जानकार महर्षि भृगु से करुना पूर्वक विनती की कि आप मुझे आशीर्वाद दें कि मेरे पुत्र में ब्राह्मण का आचरण हो, और मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे | भृगु ऋषि ने विनती को स्वीकार करते हुए तथास्तु का वरदान दे दिया | समय के साथ सत्यवती कि माता के गर्भ से ऋषि विश्वामित्र और सत्यवती के गर्भ से महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ | भृगु ऋषि के पौत्र और महर्षि ऋचिक पुत्र जमदग्नि जिनकी गणना सप्तऋषियों में होती है के बड़े होने पर उनका विवाह राजा प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ | महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम | ब्रह्मर्षि वंशिये भगवान परशुराम आजीवन बाल ब्रह्मचारी रहे |

नोट: इतिहास से जुड़े इस क्षल का परिणाम आप देख चुके हैं | क्षल कपट से जुड़े कई इतिहास आपको ज्ञात भी होगा | इतिहास ने अपने पन्नों में क्षल कपट और दगे से जुडी कई कहानियों को समेटे रखा है और कालांतर में ऐसे कई पन्ने इतिहास से जुड़े |

- संतोष कुमार (लेखक)

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Chandra Shekhar Azad ( Indian Freedom Fighter ) - शहीद चंद्रशेखर आजाद

Monday 30 July 2012

शहीद चंद्रशेखर आजाद - Indian Freedom Fighter Chandra Shekhar Azad

भारत के आजादी से जुड़े स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी शहीद स्व. श्री चंद्रशेखर आजाद जुझौतिया ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे | उनका जन्म 23 July 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भावरा गाँव में पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर हुआ था | उनका शहादत 27 February 1931 को उत्तर प्रदेश के इलाहबाद शहर में हुआ था |

नोट: पूरी कहानी अभी लेख में है, शोध की वजह से पूरा लेख अभी पोस्ट करने में असमर्थ हूँ | जल्द ही पूरा लेख आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जायेगा | धन्यवाद |

- संतोष कुमार (लेखक)

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स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा रचित पुस्तकें - Books Written By Swami Sahajanand Saraswati

Sunday 29 July 2012

स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा रचित पुस्तकें :

१. ब्राह्मण समाज की स्थिति - १९१६
२. ब्रह्मर्षि वंश विस्तर – १९१६
३. झूठ भय और मिथ्या अभिमान – १९१६
४. कर्म कलाप – १९२६
५. गया के किसानों की करुना कहानी – १९३३
६. भूमि व्यवस्था कैसे हो – १९३५
७. The Other Side & The Shield - १९३८
८. Rent Reduction in Bihar: How it Works - १९३९
९. मेरा जीवन संघर्ष ( आत्मकथा ) – १९४०
१०. किसान कैसे लड़ते हैं – १९४०
११. किसान क्या करें – १९४०
१२. किसान सभा के संस्मरण – १९४०
१३. झारखण्ड के किसान – १९४१
१४. खेत मजदूर - १९४१
१५. क्रांति और संयुक्त मोर्चा – १९४१
१६. गीता ह्रदय ( धार्मिक ) – १९४२
१७. जमींदारी का खात्मा हो – १९४६
१८. किसानों को फंसाने की तैयारी – १९४६
१९. अब क्या हो – १९४७
२०. महारुद्र का महातांडव – १९४८
२१. किसानों के दवे और कार्यक्रम का खरीता – १९४९

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Coal Mafia B.P. Sinha - काले हीरे का बादशाह कोल माफिया बीपी सिन्हा (भूमिहार)

Friday 27 July 2012

कोल माफिया बीपी सिन्हा, काले हीरे का बादशाह (Coal Mafia B.P. Sinha)

जब हम काले हीरे की बात करते हैं तो हमें तत्कालीन बिहार राज्य के कुछ प्रमुख शहर झरिया, धनबाद, वासेपुर (वर्तमान झारखण्ड) की और हमारा ध्यान आकर्षित होता है | ये शहर जहाँ कभी छोटे - छोटे गाँव और बस्ती हुआ करते थे, आज बड़ी - बड़ी इमारतें देखने को मिलती है और फर्राटे से दौड़तीं गाडियां, वहाँ कभी घोड़ों की टाप के साथ - साथ बैलगाड़ी के पहियों के स्वर सुनाई पड़ते थे |

एक ओजस्वी नौजवान की सफर 1957-1958 के मध्य से शुरू होती है, बिहार के पटना जिले स्थित बाढ़ अनुमंडल का एक युवक नौकरी की तलाश में भटकते हुए कोल नगरी धनबाद आ पहुंचाता है | उस युवक की नजर काले हीरे की खान पर जा टिकती है | वह कोयले की खानों से अपने नए जीवन की शुरुवात करता है | कोयलांचल की जीवन शैली में वह इतना रम जाता है की मजदूर संघ में जगह मिलने के कुछ समय पश्चात ही वह मजदूर संघ का मुख्य नेता बन जाता है | लगता था जैसे काला हीरा स्वयं अपना जोहरी तलाश रहा था वर्षों से | कालांतर में वह पूरे कोल नगरी का बेताज बादशाह बन जाता है वह जोहरी और यहीं से शुरू होता है कोयलांचल के वर्चस्व और खुनी जंग की कहानी “ गैंग्स ऑफ वासेपुर “ |

भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मे जिस काले हीरे के पारखी की हम बात कर रहे हैं यह कोई और नहीं, यह कोल माफिया बिरेन्द्र प्रताप सिन्हा (बीपी सिन्हा) जी थे | आपने अमरीका के व्हाइट हॉउस का नाम तो सुना ही होगा ठीक वैसा ही कुछ सिन्हा जी का आवास व्हाईट हाउस के रूप में मशहूर हुआ था उन दिनों , जो आज भी उनकी याद को ताजा करता है गुजरते हुए राहगीरों को |

पहले कोयलांचल का इलाका ‘वासेपुर’ किसी ज़माने में मुस्लिम बाहुबल गाँव हुआ करता था, छोटी - छोटी कई बस्तियां भी थीं, वहाँ किसानों द्वारा खेती हुआ करती थी | लेकिन जब अंग्रेजों को कोयला भंडार का पता चला तब उन्होंने वहाँ कोयला निकलने के लिए कारखाना का निर्माण किया और धीरे धीरे खेती बंद होती चली गई और वह इलाका काले हीरे के भंडार के नाम से जाना गया जिसे हम आज कोल नगरी के नाम से जानते हैं | कोयला अंग्रेजों के ज़माने में कारखाना और रेल चलाने का मुख्य स्रोत था, उनके द्वारा वास्तव में कोल नगरी बसाने का मुख्य वजह यह ही था | 1947 में जब अंग्रेज देश छोड़कर चले जाते हैं तब कोयले की ज्यादातर खदानें निजी संस्थाओं के हाथों में थी | उस वक्त अधिकांश खदान मालिक राजस्थान और गुजरात से जुड़े थे जबकि माइनर्स तत्कालीन उत्तर बिहार और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के होते थे | कहते हैं कोयला श्रमिकों के लिए मात्र काला पत्थर ही था जबकि खदान मालिकों एवं माफियाओं के लिए काले हीरे से कम न था | वहाँ खदान मालिकों की मिलकियत कोयला खदानों पर चलती थी | खदान मालिक खदान को चलाने के लिए गुंडों को दाना - पानी दिया करते थे | इस धंधे में वर्चस्व को लेकर छोटी मोटी घटनाएं अक्सर हुआ करती थीं, लेकिन माफियाओं का दौर साठ के दशक में शुरू होता है | इसी दौरान बीपी सिन्हा मजदूर आंदोलन में कूद गए और ट्रेड यूनियन के सबसे बड़े मजदुर नेता के रूप में उभर कर सामने आए | देखते ही देखते 10 साल के अंदर बीपी सिन्हा की पकड़ पूरे कोयले की नगरी पर हो जाती है | आंकड़ों के मुताबिक धनबाद में कोयले के कारोबार पर कब्जे को लेकर 1967 तक छिड़ी जंग में दर्जनों दबंग कारोबारियों और नेताओं की बलि दी जा चुकी थी |

कोल माइनिंग पर वर्चस्व के लिए मजदूर संघ का मजबूत होना बहुत ही आवश्यक था, बीपी सिन्हा इस बात को बखूबी जानते थे | जब 17 अक्टूबर 1971 को कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है तब राष्ट्रीयकरण होते ही बीपी सिन्हा का कोल नगरी पर पकड़ और अधिक मजबूत हो जाता है, पूरे कोल माइनिंग में उनकी तूती बोलने लगती है, उनका अब कोयले की खदानों पर एकछत्र राज्य चलने लगता है | वह कांग्रेस के प्रचारक थे और कोल माइनिंग में भारतीय राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ की तूती बोलती थी | किद्वान्ति है की उनका माफिया राज इतना बड़ा था की एक बार जब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी अपने रैली के दौरान सभा में देर से आई थीं, इस बात को लेकर बीपी सिन्हा बहुत नाराज हुए थे, जिसको लेकर इंदिरा गाँधी को भरी सभा में जनता से क्षमा माँगनी पड़ी थी | उनकी प्रभुता के किस्से में एक अध्याय यह भी जुड़ा है की उन्होंने अपने माली बिंदेश्वरी दुबे’ को मजदूर संघ का नेता तक बना डाला था | वे कांग्रेसी थे और उनका कद इतना बड़ा था की उन दिनों भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनकी वार्तालाप हॉटलाइन पर हुआ करती थी |

इन्ही दिनों बीपी सिन्हा के गैंग में शामिल होता है राजपूत जाति का एक श्रमिक सूरजदेव सिंह, जो की उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का रहने वाला था | कुछ समय पश्चात बीपी सिन्हा से नजदीकियां बढाकर वह मजदूर सूरजदेव सिंह, सिन्हा जी के बॉडीगार्ड के साथ साथ भरोसे की बदौलत दाहिना हाथ तक बन जाता है | कालांतर में सूरजदेव सिंह बीपी सिन्हा का साथ पाकर अंदरूनी तौर पर मजबूत होते चले जाते हैं | तत्कालीन बिहार और उत्तर प्रदेश राजनीति से ग्रसित हो चुकी थी, जतिगत बोलबाला शरू हो चूका था, यह प्रसिद्ध कहावत “ लाठी हमारी तो मिल्कियत भी हमारी ” चरितार्थ हो रही थी | छिटपुट घटनाओं में अब तक दर्जनों लाशें बिछ चुकी थीं, इन लड़ाइयों में तत्कालीन बिहार और उत्तर प्रदेश के बड़े से बड़े क्रिमिनल शामिल थे | इसकी गूंज बिहार और दिल्ली की सत्ता के गलियारों से लेकर पार्लियामेंट तक सुनाई पड़ रहीं थी | ए+बी+सी=डी काफी प्रचलित हो चूका था, इस एब्रीविएशन का अर्थ था आरा + बलिया + छपरा = धनबाद | बीपी सिन्हा को कोयलांचल में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था, पर वह हताश नहीं हुए थे, अपने शागिर्दों के दम पर उनकी रियासत कायम थी |

केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई इंदिरा गांधी के विरोधी लहर के दौरान विरोधी बीपी सिन्हा के इस वर्चस्व को तोडऩे के लिए मौके की तलाश में थे | वैसे भी सूरजदेव सिंह बीपी सिन्हा से अलग हटकर काम करने को आतुर था | पूर्व प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के युवा नेता ‘चंद्रशेखर’, जो की वह भी जाति से राजपूत ही थे, अपना पूरा ताकत लगा चुके थे, कहा जाता है सूरजदेव सिंह उनके करीबी मित्र थे | 1977 में सूरजदेव सिंह को जनता पार्टी से टिकट मिली थी और वह उस एरिया से विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर विधायक बन चुके थे । कहते हैं बीपी सिन्हा से सूरजदेव सिंह की दूरियां बढती चली जा रही थी, फिर भी उनका अपने पुराने शागिर्द सूरजदेव देव सिंह पर जबरदस्त भरोसा कायम था | सूरजदेव सिंह का रात -बिरात बीपी सिन्हा का कथित आवास ‘व्हाइट हॉउस’ पर आना जाना लगा रहता था | फिर अचानक 28 मार्च 1979 की रात अपने ने ही वह करतूत कर डाला जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, व्हाइट हॉउस खून से सराबोर हो चूका था | काले हीरे के सरताज अलविदा हो चुके थे, कहा जाता है दगा देकर उनकी हत्या बहुत ही क्रूर तरीके से की गई थी | हत्या का आरोप उन्हीं लोगों पर लगा जो उनके अपने शागिर्द थे | कोयलांचल के सुप्रीमो कोल माफिया बीपी सिन्हा के मौत के बाद उनके राजनीतिक शिष्य सूर्यदेव सिंह सुर्खियों में आए थे | व्हाइट हॉउस की चमक अब खत्म हो चुकी थी और सूरजदेव सिंह का ‘सिंह मैन्सन’ जगमगाने लगा था | कुछ भी हो भले ही चमक अब खत्म हो चुकी पर ‘व्हासइट हॉउस’ आज भी कोल नगरी के बेताज बादशाह के बुलंदियों की कहानी बयान करती है और कहा जाता है जगमगाते ‘सिंह मैन्सन’ में कई विधवाएँ रहती हैं |

हाल फिलहाल में सिनेमा घरों में अनुराग कश्यप की बहुचर्चित फिल्गैंग्स आफ वासेपुररिलीज हुई, यह सिनेमा धनबाद कोल माफियाओं पर आधारित थी | अनुराग ने अपने फिल्म में जिस वासेपुर को दिखाया है वह यहां के के सच से भले ही मेल नहीं खाता हो, लेकिन गैंगवार वासेपुर और पूरे कोयलांचल की एक हकीकत है | इससे पहले भी 1979 में कोयलांचल पर बॉलीवुड के मशहूर निर्माता - निर्देशक यस चोपरा के बैनर तले एक सुपरहिट फिल्म बन चुकी है " काला पत्थर ", मुख्य किरदार के तौर पर थे, अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा एवं शशि कपूर |

(इतिहास को याद रखना आवश्यक है, समय पर इसकी जरुरत पड़ती है, जो इतिहास को भूलते हैं, चूक उन्ही से होती है और दगा की वजह शिकार बन जाते हैं | कहते हैं इतिहास अपने को दोहराता है | वैसे आपलोग ने इतिहास में राजा जयचंद की कहानी पढ़ी ही होगी )

- संतोष कुमार (लेखक)

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